Thursday 21 December 2017


       ध्यान मंन्त्र

नवाम्भोजनेत्रं रमाकेलिपात्रं,

चतुर्बाहुचामीकरं चारुगात्रम्।

जगत्त्राणहेतुं रिपौ धूमकेतुं

सदा सत्यनारायणं स्तौमि देवम्।।

Sunday 17 December 2017

n सरस्वती स्तोत्र                                                        
n श्री गणेशाय नमः                                                      प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती.
n तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसवाहिनी.
n पंचमं जगती ख्याता षंष्ठं वागीश्वरी तथा
n सप्तमं कुमुदी प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी
n नवमं बुधमाना च दशमं वरदायिनी
n एकादशं चन्द्रकांति द्वादशं भुवनेश्वरी
n द्वदशैतानी नामानी त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः
n जिव्हाग्रे वसते नित्यं ब्रह्मरुपा सरस्वती
n सरस्वती महाभागे विद्ये कमल लोचने
n विश्वरुपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।

शारदामाता की जय....                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

Sunday 17 September 2017

                                  -ः  श्री यंत्र  ः-

          श्रीयंत्र भी प्रत्यक्ष महालक्ष्मी का ही स्वरुप है । जो मनुष्य अपने घर पर रखे पवित्र मंदिर में श्रीयंत्र की विधिवत स्थापना करता है उसकी वास्तु में ( घरमें ) अष्टलक्ष्मी का सदैव निवास रहता है। यंत्र का अर्थ होता है किसी विशेष दैविशक्ति के अाविष्कार को प्राप्त करने का साधन । धन सम्पत्ती प्राप्त करने हेतु श्रीयंत्र , महालक्ष्मी यंत्र, श्रीसूक्त यंत्र, उसी प्रकार दुष्ट शक्तियों से सुरक्षा प्राप्ती के लिये महामृत्युंजय यंत्र,रामरक्षा यंत्र, दत्तात्रय यंत्र, का विधिवत पूजन करने से अभीष्टफल प्राप्त किया जा सकता है। यंत्र में विशिष्ट प्रकार की रेखाए, त्रिकोण , व्यास, पुष्पदल, बीजाक्षर, बीजमंत्र, आदि की रचना होती है। यंत्र बनाने के लिए शास्त्राधार साहित्य , उसके बनाने की पद्धति एवं समय , शुद्धिकरण , प्राणप्रतिष्ठा और सिद्धी प्राप्ति की प्रक्रिया, ये सभी बाते महत्वपूर्ण है । इसी कारण बाजार से या किसी तीर्थक्षेत्र से यंत्र लाकर मंदिर में रखने से पूर्व दीक्षित (अधिकृत जानकार) लोगों की सलाह या मार्गदर्शन आवश्यक होता है। यंत्र की शास्त्रोक्त प्राण प्रतिष्ठा किये बिना इसकी शक्ति का पूर्ण फल प्राप्त नही हो सकता ।विशेष बात ये भी है कि यंत्र की नित्य प्रतिदिन पूजा अर्चा होनी चाहिये। कम से कम धूप - दीप नैवेद्य तो होना ही चाहिये। समय की उपलब्धता एवं इष्टकी प्राप्ती के अनुसार रोज यंत्र की पूजा-अर्चा (षोडषोपचार या पंचोपचार ) , अभिषेक, मंत्र का जप, बीजमंत्र का जप, हवन, समाराधनाआदि बढते क्रम से उपासना करने पर शीघ्र फल प्राप्ती यंत्र के माध्यम से होती है।
              श्रीयंत्र -यह त्रिपुरासुन्दरी का प्रतीक है । भगवती,श्रीविद्या , त्रिपुरासुन्दरी साधना में श्रीयंत्र एक अत्यंत प्रभावी एवं उपयोगी यंत्र है । कहा तो यहां तक जाता है कि श्रीयंत्र के बिना श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी देवी की आराधना का पूरा फल प्राप्त नही हो सकता । ब्रम्हाण्ड पुराण में उल्लेख है कि जिसके गर्भ में 33 कोटी देवताओं का वास है ऐसी श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी देवी का श्रीयंत्र निवास स्थान है । वह उस निवास स्थान में महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वती ,परब्रह्म, परविष्णु, परशिव सहित निवास करती है। इसीलिए श्रीयंत्र की पूजा करने वाले को विश्व में व्याप्त सभी देवी-देवताओं की पूजा का लाभ प्राप्त होता है। और हर स्तर पर उसे समृद्धि प्राप्त होती है।
           श्रीयंत्र में अत्यंत अदभुत ढंग से ब्रह्माण्ड की रचना की गयी है । जिसके लिए विशिष्ठ पद्धति का प्रयोग करके अनेक भौतिक रचनाए एक दूसरे में पिरोई गयी है । इस यंत्र में 9 चक्र मानव देह में , 9 आध्यात्मिक चक्र के समान है। इसी कारण अनेक साधनाओं का पुण्य इस एक श्रीयंत्र साधना से प्राप्त होता है।
           श्रीयंत्र का मनोहारी रुप निहारने से ज्ञात होता है कि इस के मध्य भाग में एक बिंदु है और बाहरी भाग में भूपूर है । भूपूर के चारो तरफ चार द्वार होतें हैं । बिंदु से भूपूर तक कुल दस विभाग होते हैं जो इस प्रकार हैं-
(1)-केन्द्र बिन्दु (सर्वानन्दमय चक्र ) (2)-त्रिकोण (सर्व सिद्धिप्रद चक्र) (3)- अाठ त्रिकोण (सर्वरक्षक चक्र) (4)-
दश त्रिकोण ( सर्व रोग हर चक्र-अंतर्दशार) (5)- पुनः दश त्रिकोण ( सर्वार्थ साधक चक्र- बहिर्दशार )  (6)-
चौदह त्रिकोण (सर्व सौभाग्य दायक चक्र, चतुर्दशार) (7)- अष्टदल कमल (सर्व संभोक्षण चक्र )  (8)- षोडश दल
कमल (सर्वाशापरीपूरण चक्र)  (9)- तीन वृत्त ( त्रैलोक्य मोहन चक्र)  (10)- तीन भूपूर  (भूपूर चक्र)
         श्रीयंत्र की रचना त्रिकोण एवं व्यास को जोडकर होती है जिससे अनेक कोण एवं रेखाए तैयार होती हैं । चतुर्दशार कोण बाहर के अष्टदल से जुडे होते हैं। अष्टदल के कोण षोडशदल के साथ जुडे होते हैं। षोडशदल के
कोण प्रथम वृत्त के साथ जुडे होते हैं । जिसके कारण और भी अनेक कोण तैयार होते हैं जिन्हें स्पंदी चक्र कहते
हैं । इसमें बिन्दु , अष्टदल , त्रिवृत्त, और चतुरस्र को शिव का अंश मानते हैं । त्रिकोण , अष्टकोण , दो- दशकोण ,
एवं चतुर्दशार शक्ति का अंश मानते हैं । बाहर की ओर जो चार भूपूर हैं वह बाहरी दीवाल है जो किसी राज महल  या किले की तरह दिखती है। इसप्रकार श्रीयंत्र की रचना अति मनोहर एवं गहन है ।
                                   ---- अशोक काका कुलकर्णि जी की पोस्ट से हिन्दी अनुदित- वासुदेव महाडकर

Thursday 14 September 2017

1 9 9 6 में लिखी ये मेरी कविता हिंदी दिवस की शुभकामनाओं के साथ  --
                                                -ः दिवाकर ः-
                     नित्य दिवाकर आता उसकी थी बस एक समस्या ।
                     वर्ष नहीं, कुछ युग - युग बते करता रहा तपस्या ।।

                      हौले -हौले जब भी आता रजनी भागखडी होती। 
                      बन जोगी वह दिनभर ढूंढे ,जाने कहां थी वह सोती  ।।

                      कठिन तपस्या देख नित्य की , उठे स्वयं भगवान तभी ।
                     रजनी से मिलकर कह डाली युग- युग बात सभी।

                     सुनकर बात प्रभू की रजनी, सोच- सोच फिर द्रवित हुई।
                     अश्रु बहाती रजनी दिवाकर में यूं आज विलीन हुई ।।
                                                                वासुदेव महाडकर-

Tuesday 12 September 2017

                        - सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि एक चिंतन -

               सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि जैसे शब्दों का प्रयोग हम सभी अपने अपने व्यवहार में हमेशा ही करते हैऔर यही समझते हैकि सद् बुद्धि का अर्थ हैअच्छी बुद्धि तथा दुर्बुद्धि का अर्थ है दुष्ट बुद्धि या खराब बुद्धि। जब की अच्छाई-बुराई सापेक्ष और मानने पर अवलंबित होती है।इस प्रकार सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि के वास्तविक अर्थ का ज्ञान न होने के कारण हम इन शब्दों का प्रयोग केवल स्थूल रुप में ही करते है। संत ज्ञानेश्वर महाराजने अपने द्वारा लिखे ग्रंथ ज्ञानेश्वरी के कुछ श्लोकों में सद् बुद्धि तथा दुर्बुद्धि के सूक्ष्म अर्थ पर दृष्टिपात किया हैजो वास्तव में बोधप्रद तथा मनन करने योग्य है। संत ज्ञानेश्वर ज्ञानेश्वरी में लिखते है--
                 दिये की ज्योति छोटी होती है किंतु उसका प्रभाव बहुत बडा होता है। उसी प्रकार सद् बुद्धि अल्प हो तो भी उसे अल्प नही कहना चाहिये ।वह अत्यंन्त सुखदायक होती है।
                  केवल शब्दों के आडंबर से अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने वाले चिंतक इस जगत में बहुतेरे हैं किंतु उन्हें इस चराचर जगत के सत्य का ज्ञान कभी नहीं होता । वह दुष्प्राप्य है।
                पत्थर बहुतसे मिलेंगें किंतु पारस दुष्प्राप्य है । पारस या अमृत बिंदु बहुत अधिक पुण्य कर्म करने वाले को ही प्राप्त होता है।
                        उसी प्रकार सद् बुद्धि दुर्लभ है । संपूर्ण चराचर विश्व भगवन्मय है ऐसी बुद्धि ही सद् बुद्धि है । जिस प्रकार गंगा को सागर में मिलने से  कृतकृत्यता या सार्थकता प्राप्त होती है। उसी प्रकार बुद्धि को परमात्मा से एकात्म्य स्थापित करने से सार्थकता प्राप्त होती है।
                        हे अर्जुन, इस जगत में जिसे परमेश्वर से दूसरा कुछ भी नहीं दिखता वही सद् बुद्धि है। ईश्वर से अलग संसार को देखने वाली दुर्बुद्धि है। उसी के कारण राग- द्वेश , लोभ - मोह, आदि विकार उत्पन्न होते हैं और उसी में अविवेकी लोग सदैव लिप्त रहते हैं ।
                  इसीलिए हे अर्जुन , वे संसार में स्वर्ग- नर्क आदि काल्पनिक सुख - दुख रुपी जाल में फँसे रहते हैं । उन्हें आत्मसुख का दर्शन कभी नहीं होता।
                  उपर्युक्त अमृत बिंदुओं से स्पष्ट है कि  सद् बुद्धि का अर्थ है आत्मबुद्धि । वह  हितकारी होती है। आप पर भाव (द्वैत भाव) उत्पन्न करने वाली अनात्म बुद्धि (आत्मा से परे ) अर्थात वह दुर्बुद्धि है । उससे सदैव बचना चाहिए । अतः अब हम भी महाप्रभु से यही प्रार्थना करेंगें-
                                                                                  दुर्बुद्धि ना उपजे मेरे मानस हृदय पटल पर ।।
                                                                            इतना हो आलोक हमेशा जीवन के इस पथ पर ।।
                                                                                                       ------वासुदेव महाडकर। -----

Sunday 10 September 2017

               पुराण काल की बात है लक्ष्मी रुठकर (अप्रसन्न होकर) पृथ्वी से वैकुंठ धाम को चलीगयी। जिसके कारण पृथ्वीपर अनेक समस्याए उत्पन्न हुई। वसिष्ठ ऋषि माता लक्ष्मी को पृथ्वी पर लाने का निश्चय कर वैकुण्ठ (विष्णु लोक) गये।  किंतु उन्हें सफलता नही मिली। उसके बाद वसिष्ठ ऋषि ने तपस्या शुरु की और भगवान विष्णु का आह्वाहन किया।  भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने वसिष्ठ ऋषि के साथ महा लक्ष्मी के प्रसाद (गृह) में प्रवेश किया।  वहां महा लक्ष्मी की प्रार्थना की।  किंतु माता लक्ष्मी ने पृथ्वी पर न जाने का अपना निश्चय दृढ रखा। वसिष्ठऋषि दुखी मन से पृथ्वी पर लौट आये और सभी के सामने एक बात का निवेदन किया, कि अब श्रीयंत्र निर्मिति के (शिवाय) बिना दूसरा कोई रास्ता बचा नहीं है। इसप्रकार उन्होंने अपने आश्रम में दीपावली के पूर्व धनत्रयोदशी के दिन विधि- विधान से श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा की।  देवों के गुरु बृहस्पति जी ने वसिष्ठ ऋषि को श्रीयंत्र निर्मिति का ज्ञान एवं उसकी उपासना का क्रम बताया था। उन्हीं के निर्देशों के अनुसार श्रीयंत्र की निर्मिति हुई।  श्रीयंत्र की षोडशोपचार पूजा होते ही महा लक्ष्मी अपनी सभी सिद्धियों के साथ श्रीयंत्र रूपी सिंहासन पर प्रकट हुई.। महा लक्ष्मी ने सभी को आशिर्वाद दिया । उसने कहा कि -आप लोगो ने जो श्रीयंत्र का प्रयोग किया है उससे मै प्रभावित हुई हूँ, मै इस श्रीयंत्र में अखण्ड रुप में निवास करुंगी ।
         जिनके घर में विधि पूर्वक श्रीयंत्र की स्थापना हुई हो उन्हें सपरिवार श्रीयंत्र की आराधना भक्ति पूर्वक अंतःकरण से करनी चाहिए । सुबह स्नानादि से शुचिर्भूत होकर श्रीयंत्र के सामने नंदादीप (दीपक ) लगाकर आसन पर बैठना चाहिए। न्यास , संकल्प एवं ध्यान करके श्रीयंत्र की पंचोपचार पूजा करनी चाहिए। पूजा पूर्ण होने के बाद श्रीललिता सहस्रनाम स्तोत्र का पठन कर कुंकुमार्चन करना चाहिए। उसके बाद बीज मंत्र का जप करना चाहिए।  जप के बाद आरती एवं क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए।  शाम को भी धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर नैवैद्य(भोग) लगाना चाहिए। श्रीयंत्र को नित्य स्नान विधि , अभिषेक की आवश्यकता नहीं है.। केवल पौर्णिमा के दिन ललिता सहस्र नाम स्तोत्र से अभिषेक अथवा केवल जल से शुचिर्भूत होकर स्नान कराना चाहिए। ललिता सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ एवं कुंकुमार्चन करना चाहिए। जिस घर में श्रीयंत्र की स्थापना एवं ललितासहस्रनाम स्तोत्र का पाठ तथा कुंकुमार्चन होता है उस घर में ललिता स्त्रिपुरसुंदरी का निश्चित ही निवास होता है इसे ध्यान में रखना चाहिए।
              श्रीयंत्र साधना से व्यापार वृद्धि , ऋण मोचन, संतान लाभ , दरिद्रता नाश, अपार धनसंपदा, भौतिक सुखसम्पदा, और अदभुत ऐश्वर्य सिद्धि प्राप्त होती है.। अत्यंत प्रभावी इस श्रीयंत्र के कारण घर में सुख समृद्धि रहती है ।सभी प्रकार के भय का नाश होता है। विद्या, शक्ति, यश , मान-सम्मान ,ऐश्वर्य और सकल समृद्धि प्राप्त होती है। श्रीयंत्र साधना संकटों से मुक्ती एवं यश समृद्धि की ओर जानेवाला राजमार्ग है। सुबह -शाम की पूजा में श्रीयंत्र पर किसी भी प्रकार के अभिषेक की आवश्यकता नहीं है-नित्य कुंकुमार्चन ही देवी का (श्रीयंत्र का) अभिषेक है।
            पिछले कुछ वर्षो से श्रीअशोक काका कुलकर्णि जानकारी पूर्ण लेख सोशल मिडिया पर पोस्ट करते आरहे है प्रस्तुत श्रीयंत्र की जानकारी उन्हीं की पोस्टसे हिंदी में अनुदित है- वासुदेव महाडकर  
             





  


























































































































































































































Sunday 20 August 2017

*   सुभाषित--
                            अनारम्भो हि कार्याणां प्रथम बुद्धिलक्षणम्  ।
                             आरब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं  बुद्दिलक्षणम्  ।।
   किसी भी कार्य का प्रारंभ ही न करना बुद्धिका प्रथम लक्षण है, (किन्तु ) प्रारंभ कर ही  दिया तो उसे अंत तक लेजाना (पूर्ण करना ) बुद्धिका दूसरा लक्षण है ।




Thursday 13 July 2017

एको देवः सर्वभूतेषु गूढःसर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । 
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।
एकही ईश्वर सभीप्राणियों में छुपा हुआ है।  सर्वव्यापि और सभी प्राणियों में अंतर्यामि परमात्मा है ।
वही सभी कर्मका अधिष्ठाता, सभी भूतोंका निवास स्थान, सभीका साक्षी, चेतनस्वरुप , सम्पूर्णरुपसे विशुद्ध
एवं गुणातीत है।।

Monday 17 April 2017

पिछले दिनों एक फ्रेंड रिक्वेस्ट ने मुझे इस गज़ल की याद दिलायी और पोस्ट करने को प्रेरित किया, क्योंकि उसमे मित्रता और रिश्ते का मेल था, जबकि ये दोनों अलग -अलग हैं। हर रिश्तेको किसी न  किसी नामकी जरुरत पड़ती ही है किन्तु मित्रता को किसी नाम की जरुरत ही नहीं है। संक्षिप्त में कहूँ तो एक मूर्त रूप से अमूर्त हो जाता है तो दूसरा अमूर्त में मूर्त रूप को देखता है। 
यद्यपि यह गज़ल मेरी लिखी नहीं है। यह ८० के दशक में यूनियन बैंक वाराणसी की पत्रिका में छपी थी ,,,,,,जो मेरी पढ़ी हुई है ------
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ 
भटकती लहर का किनारा नहींहूँ। 
तुम्हारा ही क्यों, मै किसी का नहीं हूँ 
रहेगा ग़म अंततक इसीका 
किया एक अपराध मैंने जगत का 
न था जिसका हुआ मै उसीका 
आगेकी तो मै नहीं जानता हूँ 
अभी तक मै किसीका प्यारा नहीं हूँ 
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ ,,,| 

किसीको कुछ न देसकी चाह मेरी 
प्रलय भी न लेसकी थाह मेरी 
किसीके चरण - चिन्ह मैंने न खोजे 
जिधर पैर पड़ गये बन गयी राह मेरी 
न जाने कहांसे कहां पहुँच गया हूँ 
निश्चित पथिक हूँ ,सहारा नहीं हूँ 
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ ,,,,,
भटकती लहर का किनारा नहीं हूँ।।

Monday 20 March 2017

अगले ही हफ्ते २८ मार्च २०१७ को चैत्र शु ० प्रतिपदा "गुडी पाडवा "है । नया वर्ष, नवीन संवत्सर का प्रारम्भ । जो जानते  है और मानते हैं वे सभी इसका स्वागत करेंगे ही । मेरा भी वही एक प्रयास काव्य के माध्यमसे ----                                       ---नववर्षाभिनंदन---
                                          इस धरती को करदे नंदन,
                                          नया वर्ष तेरा अभिनन्दन । 
नयी ज्योतिदे शुभद कामना  
हो प्रशस्तपथ राष्ट्र चिंतना  ।  
                                       अरुणोदय का हो अभिवंदन 
                                         नया वर्ष तेरा अभिनन्दन । 
अंधकार को हर हरि मन के 
हर्षित कर हर क्षण जीवन के 
                                            टूटे कोई अब ना  कंगन 
                                            नया वर्ष तेरा अभिनन्दन । 
प्रेम भरा हो जन का जीवन 
रहे अखण्ड सदा निराञ्जन
                                          तन-मन महक उठे बन चन्दन 
                                           नया वर्ष तेरा अभिनन्दन  । । 
                                                ***** वासुदेव चिं० महाडकर 

Monday 6 March 2017

बचपन की यादें  ,जिन्होंने होली पर लिखने के लिए प्रेरित किया, वर्ना अब कहाँ होली और होली के वो रंग -??---
                        ==आओ! खेलें हम तुम  संग ==    
                                             लायी होली फिरसे रंग ,
                                            आओ! खेलें हम तुम संग 
लाल गुलाबी हरा बसंती ,
इंद्रधनुष-सी धरा की कान्ति,  
                                              नर नारी  में भरी उमंग   
                                              आओ ! खेलें हम तुम संग 
                                              लायी होली फिर से रंग । 
यह भीग रहा है पूरा तन 
हर्षोल्लास से भरा है मन ,  
                                             छोड़ द्वेष मिलने दो अंग । 
अबीर गुलाल का उठा धुआं 
धुंधलाता है सारा जहाँ।,     
                                             देख इसे सब रहगए दंग ।
 यह मौसम भी है सजा -सजा 
बस पीने का है आज मजा 
                                            हर -हर बोलो, औ पियो भंग    
                                            आओ !खेलें  हम तुम संग 
                                            लायी होली फिर से रंग ।    
                                              ____ वासुदेव चिं महाडकर 

Thursday 2 March 2017

क्षितिज के पार -----  
                क्षितिज के  पार
                एक अंजाना विस्फोट
                आश्चर्य से लोगोने देखा  
                कुछ ही क्षणों बाद / पहचानते हुए
                किसी वृद्ध ने कहा -
                "यह तो सूर्य है "
               वसुंधरा को भी / ऊर्जा देने वाला
                प्रतिक्षण / क्रमिक विकास
                यह स्वयं करेगा
                और कुछ ही घंटो में
                 पूर्ण प्रौढ़ हो जायेगा
                तब इसके तेज मात्र से
                कितने ही जीव  /  अशांत हो
                आत्मोत्सर्ग करेंगे ।
                ज्येष्ठ माह में  /  तब भी -
                किसी मुंडेर पर / बैठा होगा
                मात्र कबूतर -------
                शांति का सन्देश देता हुआ ।
                 किन्तु सूर्य की / विशेषता है
                प्रौढ़ता के बाद -
               यह तेज को / स्वयं ही हरेगा
               धीरे ----धीरे,,,,
              असंख्य किरणपुंज  
              अपनेआप में समेटता हुआ
              संध्याकाल में  / मौन
              मात्र प्रतीत होगा ।
               फिर कुछ ही समय बाद -
              अस्तमान से पहले ,
              क्षितिज पर छोड़ देगा  / प्रतिबिम्ब
               चन्द्रमा के रुप में ------  ।  
                    ______ वासुदेव चिं महाडकर 

Thursday 23 February 2017

__      -महिमा महादेव की न्यारी -
                                     महिमा महादेव की न्यारी
                                     गाता  "वासू" बने  पुजारी। 
जटा -जूट जो मस्तक धारी
नन्दी पर   वह करे सवारी 
वाम भाग है जिसका नारी 
जड़-जीवोंका वह हितकारी 
                                      कितनी सुन्दर प्रतिमा प्यारी 
                                      महिमा  महादेव  की  न्यारी  
सर्पों को  जिसने है पाला
 रूद्राक्षों की पहने माला
अधरों पर हो विष का प्याला 
वह  देवों मे देव निराला 
                                      उससे ही गङ्गा अवतारी  ।
जो डमरू की डम-डम ध्वनि पर
प्रचण्ड ताण्डव नृत्य कर सके 
धक्-धक् जलती हुई अग्नि मे 
कामदेव को हवन कर सके । 
                                       है वह शङ्कर प्रलयंकारी । 
श्वेत वस्त्र है जिसको प्यारा 
स्तुति करते ही देत सहारा 
देवों  में उस  महादेव  को   
हृदय करे शत -नमन हमारा 
[आज महाशिवरात्री के दिन 
उस शिव को शत नमन हमारा ]
                                           चिता -भस्म वह त्रिपुण्ड धारी 
                                                 महिमा महादेव की न्यारी 
                                                  गाता "वासू' बने   पुजारी। 
                              _______वासुदेव चिन्तामणि महाडकर 
                                           
   
  

Monday 20 February 2017

                                                        श्रद्धवान लभते ज्ञानम्                                                                               कोई भी कार्य श्रद्धा से करे तो वह ज्ञान प्राप्ति मे कारण बनता है और वह श्रद्धावान ज्ञानी होता है |यह श्रद्धा अन्ध श्रद्धा हो तो भी चलेगी या वह तर्क संगत होनी ही चाहिये इसका निर्णय करना थोडा साहस का कार्य होगा ,क्योकि अन्ध श्रद्धा से भी संत ज्ञान के अधिकारी हुए ,यह बात प्रसिद्ध ही है |किसी समय ऐसा भी होता है कि चिकिस्सा [तर्क संगति ] करते हुए श्रद्धा डगमगा ने लगती है और  ऐसा ही कुछ प्रकार सत्यनारायण व्रत के विषय मे मेरा हुआ | बचपन से कई बार सत्यनारायण की कथा सुनी और ऐसी श्रद्धा भी थी कि स्कन्द पुराण के रेवा खण्ड मे इसका विधान है किन्तु ब्रह्मिभूत नारायण महाराज केडगावकर इनके यहा जब अहोरात्र {अखण्ड }सत्यनारायण सप्ताह हुआ उस समय वैकुण्ठवासी नागेशशास्त्री उप्पिनबेटगिरी जी ने इस व्रत की प्रामाणिकता बताते हुए ऐसा विधान किया कि -भलेही विद्यमान रेवाखण्ड मे सत्यनारायण व्रत दिखता न भी हो तो भी लुप्त होगये भाग मे वह है |इसे सुनने के बाद मन मे सन्देह उत्पन्न होकर विद्यमान रेवाखण्ड मे दुसरे कुछ और व्रतो का विधान है कि क्या ? इसे जानने की जिज्ञासा हुई |उसके बाद काफी दीनो तक पुस्तक ही उपलब्ध नही हुई | आगे परम् पूज्य  काणे महाराज जी के यहा 18पुराणोके प्रवचन के समय उपर्युक्त जिज्ञासा का समाधान प्राप्त होगा ,यह सोचकर आनन्द हुआ |  किन्तु क्रमप्राप्त स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड के प्रवचन के बाद वह अस्तन्गत हुआ क्योकि रेवा अर्थात नर्मदा और उसके वर्णन का खण्ड, जिसमे किसीभी व्रतका विधान नही था ; इसलिये प्रचलित सत्यनारायण व्रत को प्रमाण नही मिला | संयोग से हुआ यह कि पुराण समाप्ति के बाद परम् पूज्य  काणे महाराज जी के यहा सत्यनारायण पूजा के समय कथा बताने की मुझे अाज्ञा हुई | देखता हू तो प्रत्यक्ष भविष्य पुराण के कुछ पृष्ठ वहा व्यासपीठ पर रखे हुए थे  उसे देखकर प्रसन्नता हुई | अब सारी संगति जुडचुकी थी कि भविष्य पुराण के विधान को किसीने सामान्य रुपान्तरण करके प्रमाणिक्ता के लिये उसे स्कन्दपुराण से जोड दिया | उसी समय मनमे फिर दुसरी चिन्ता सताने लगी कि यह प्रामाणिक कथा छपकर लोगो के सामने आनी चाहिये | किन्तु यह मेरे लिये असंभव था | आगे कभी स्कन्द पुराण की कथा पढने के समय मनमे दुःख होकर , " सत्यनारायण जी !आपकी वह सत्यकथा लोगोंके सामने लाइये " ऐसे बोल रिह्दय में समय -समय पर निकलनेसे ही [समष्टिभूत ] सत्यनारायण स्वरुपी ब्रह्मचैतन्य स्वामी महाराज जी ने अपने एकनिष्ट भक्त परमपूज्य काणे महाराज जी को प्रेरित किया और उसी प्रेरणा के फलस्वरुप यह प्रामाणिक सत्यकथा परमपूज्य काणे महाराज सत्यनारायण भक्तोंको सादर प्रस्तुत कर रहे हैं । इसीलिए प,पू ,काणे महाराज प्रेरक श्री १ ० ८ ब्रह्मचैतन्यमूर्ति स्वामी महाराज एवं सर्वान्तरयामी तथा सर्वनियंता सत्यनारायण इन सबको शतशः प्रणाम करके यह निवेदन पूर्ण कर रहा हूँ। 
                                                                                                            -   केशव श्रीधर करंबेळकर   
                                                                 मराठी से हिन्दी अनुवाद _ वासुदेव चिन्तामणि महाडकर 
मुंबई- आषाढ़ शु ० ११ -१८८३ सोमवार 
दिनांक २४ /७ /६१  














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Sunday 19 February 2017

आज हर हिन्दु परिवारमे सत्यनारायण पूजा होती है | किन्तु बहुत कम लोग यह जानते है  कि यह पूजा-कथा  स्कन्द पुराण मे न होकर भविष्य पुराण मे है |वर्तमान कथा भाग मे भी कुछ् अन्तर है | परम् पूज्य काणे महाराज जी ने इस प्रामाणिक कथा को  पुस्तक रुप मे प्रकाशित भी किया किन्तु इसका प्रचार हो नही  पाया | कथा मे संशोधन कर स्कन्द पुराण से जोडने के पिछे क्या कारण होगा यह तो पता नही, पर कहा ये जाता है कि कलियुगमे केवल एक ही व्रत सत्यनारयन व्रत ऐसा है जो इसी जीवन मे फल देता है | फिर इतने महत्वपूर्ण व्रत कथा की प्रामाणिकता मे परिवर्तन क्यो ???  

Wednesday 15 February 2017

चित्र कविता -        घडी -        टिक टिक  टिक टिक दिनभर करती                                                                                                                                            समय बताती है |                                                                                                               अविरल गति से काम करो नित                                                                                                                                                    हमे सिखती है |                                                                                                                   घर बाहर यह हरदम सबका                                                                                                                                                    साथ निभाती है|                                                                                                                   घडी नाम है इसका यह हम -                                                                                                                                                   सबको भाती है |                                                                                                                                     वासुदेव महाडकर ...

Thursday 9 February 2017

सुभाषित

आहार निद्रा भय मैथुनंच ,सामान्यमेतत ,पशुभिर् नराणाम |                                                                          धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ||      अर्थात्- भोजन करना, सोना   डरना  संतानोत्पत्ति करना ,आदि बातोमे मनुष्य पशुओ के समान है | केवल धर्म ही उसमे विशेष है |   धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान है |  

Tuesday 7 February 2017

आत्मपुण्येन भाग्यवान

सुशीलो मातृपुण्येन, पितृपुण्येन चातुरः ।
औदार्यं वंशपुण्येन, आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।

अर्थात-
कोई भी इंसान अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है,
पिता के पुण्य से चतुर होता है,
 वंश के पुण्य से उदार होता है
और
अपने स्वयं के पुण्य होते हैं तभी वो भाग्यवान होता है।

अतः
भाग्य प्राप्ति के लिए सत्कर्म आवश्यक है।