Sunday 17 September 2017

                                  -ः  श्री यंत्र  ः-

          श्रीयंत्र भी प्रत्यक्ष महालक्ष्मी का ही स्वरुप है । जो मनुष्य अपने घर पर रखे पवित्र मंदिर में श्रीयंत्र की विधिवत स्थापना करता है उसकी वास्तु में ( घरमें ) अष्टलक्ष्मी का सदैव निवास रहता है। यंत्र का अर्थ होता है किसी विशेष दैविशक्ति के अाविष्कार को प्राप्त करने का साधन । धन सम्पत्ती प्राप्त करने हेतु श्रीयंत्र , महालक्ष्मी यंत्र, श्रीसूक्त यंत्र, उसी प्रकार दुष्ट शक्तियों से सुरक्षा प्राप्ती के लिये महामृत्युंजय यंत्र,रामरक्षा यंत्र, दत्तात्रय यंत्र, का विधिवत पूजन करने से अभीष्टफल प्राप्त किया जा सकता है। यंत्र में विशिष्ट प्रकार की रेखाए, त्रिकोण , व्यास, पुष्पदल, बीजाक्षर, बीजमंत्र, आदि की रचना होती है। यंत्र बनाने के लिए शास्त्राधार साहित्य , उसके बनाने की पद्धति एवं समय , शुद्धिकरण , प्राणप्रतिष्ठा और सिद्धी प्राप्ति की प्रक्रिया, ये सभी बाते महत्वपूर्ण है । इसी कारण बाजार से या किसी तीर्थक्षेत्र से यंत्र लाकर मंदिर में रखने से पूर्व दीक्षित (अधिकृत जानकार) लोगों की सलाह या मार्गदर्शन आवश्यक होता है। यंत्र की शास्त्रोक्त प्राण प्रतिष्ठा किये बिना इसकी शक्ति का पूर्ण फल प्राप्त नही हो सकता ।विशेष बात ये भी है कि यंत्र की नित्य प्रतिदिन पूजा अर्चा होनी चाहिये। कम से कम धूप - दीप नैवेद्य तो होना ही चाहिये। समय की उपलब्धता एवं इष्टकी प्राप्ती के अनुसार रोज यंत्र की पूजा-अर्चा (षोडषोपचार या पंचोपचार ) , अभिषेक, मंत्र का जप, बीजमंत्र का जप, हवन, समाराधनाआदि बढते क्रम से उपासना करने पर शीघ्र फल प्राप्ती यंत्र के माध्यम से होती है।
              श्रीयंत्र -यह त्रिपुरासुन्दरी का प्रतीक है । भगवती,श्रीविद्या , त्रिपुरासुन्दरी साधना में श्रीयंत्र एक अत्यंत प्रभावी एवं उपयोगी यंत्र है । कहा तो यहां तक जाता है कि श्रीयंत्र के बिना श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी देवी की आराधना का पूरा फल प्राप्त नही हो सकता । ब्रम्हाण्ड पुराण में उल्लेख है कि जिसके गर्भ में 33 कोटी देवताओं का वास है ऐसी श्री ललिता महात्रिपुरसुन्दरी देवी का श्रीयंत्र निवास स्थान है । वह उस निवास स्थान में महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वती ,परब्रह्म, परविष्णु, परशिव सहित निवास करती है। इसीलिए श्रीयंत्र की पूजा करने वाले को विश्व में व्याप्त सभी देवी-देवताओं की पूजा का लाभ प्राप्त होता है। और हर स्तर पर उसे समृद्धि प्राप्त होती है।
           श्रीयंत्र में अत्यंत अदभुत ढंग से ब्रह्माण्ड की रचना की गयी है । जिसके लिए विशिष्ठ पद्धति का प्रयोग करके अनेक भौतिक रचनाए एक दूसरे में पिरोई गयी है । इस यंत्र में 9 चक्र मानव देह में , 9 आध्यात्मिक चक्र के समान है। इसी कारण अनेक साधनाओं का पुण्य इस एक श्रीयंत्र साधना से प्राप्त होता है।
           श्रीयंत्र का मनोहारी रुप निहारने से ज्ञात होता है कि इस के मध्य भाग में एक बिंदु है और बाहरी भाग में भूपूर है । भूपूर के चारो तरफ चार द्वार होतें हैं । बिंदु से भूपूर तक कुल दस विभाग होते हैं जो इस प्रकार हैं-
(1)-केन्द्र बिन्दु (सर्वानन्दमय चक्र ) (2)-त्रिकोण (सर्व सिद्धिप्रद चक्र) (3)- अाठ त्रिकोण (सर्वरक्षक चक्र) (4)-
दश त्रिकोण ( सर्व रोग हर चक्र-अंतर्दशार) (5)- पुनः दश त्रिकोण ( सर्वार्थ साधक चक्र- बहिर्दशार )  (6)-
चौदह त्रिकोण (सर्व सौभाग्य दायक चक्र, चतुर्दशार) (7)- अष्टदल कमल (सर्व संभोक्षण चक्र )  (8)- षोडश दल
कमल (सर्वाशापरीपूरण चक्र)  (9)- तीन वृत्त ( त्रैलोक्य मोहन चक्र)  (10)- तीन भूपूर  (भूपूर चक्र)
         श्रीयंत्र की रचना त्रिकोण एवं व्यास को जोडकर होती है जिससे अनेक कोण एवं रेखाए तैयार होती हैं । चतुर्दशार कोण बाहर के अष्टदल से जुडे होते हैं। अष्टदल के कोण षोडशदल के साथ जुडे होते हैं। षोडशदल के
कोण प्रथम वृत्त के साथ जुडे होते हैं । जिसके कारण और भी अनेक कोण तैयार होते हैं जिन्हें स्पंदी चक्र कहते
हैं । इसमें बिन्दु , अष्टदल , त्रिवृत्त, और चतुरस्र को शिव का अंश मानते हैं । त्रिकोण , अष्टकोण , दो- दशकोण ,
एवं चतुर्दशार शक्ति का अंश मानते हैं । बाहर की ओर जो चार भूपूर हैं वह बाहरी दीवाल है जो किसी राज महल  या किले की तरह दिखती है। इसप्रकार श्रीयंत्र की रचना अति मनोहर एवं गहन है ।
                                   ---- अशोक काका कुलकर्णि जी की पोस्ट से हिन्दी अनुदित- वासुदेव महाडकर

Thursday 14 September 2017

1 9 9 6 में लिखी ये मेरी कविता हिंदी दिवस की शुभकामनाओं के साथ  --
                                                -ः दिवाकर ः-
                     नित्य दिवाकर आता उसकी थी बस एक समस्या ।
                     वर्ष नहीं, कुछ युग - युग बते करता रहा तपस्या ।।

                      हौले -हौले जब भी आता रजनी भागखडी होती। 
                      बन जोगी वह दिनभर ढूंढे ,जाने कहां थी वह सोती  ।।

                      कठिन तपस्या देख नित्य की , उठे स्वयं भगवान तभी ।
                     रजनी से मिलकर कह डाली युग- युग बात सभी।

                     सुनकर बात प्रभू की रजनी, सोच- सोच फिर द्रवित हुई।
                     अश्रु बहाती रजनी दिवाकर में यूं आज विलीन हुई ।।
                                                                वासुदेव महाडकर-

Tuesday 12 September 2017

                        - सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि एक चिंतन -

               सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि जैसे शब्दों का प्रयोग हम सभी अपने अपने व्यवहार में हमेशा ही करते हैऔर यही समझते हैकि सद् बुद्धि का अर्थ हैअच्छी बुद्धि तथा दुर्बुद्धि का अर्थ है दुष्ट बुद्धि या खराब बुद्धि। जब की अच्छाई-बुराई सापेक्ष और मानने पर अवलंबित होती है।इस प्रकार सद् बुद्धि और दुर्बुद्धि के वास्तविक अर्थ का ज्ञान न होने के कारण हम इन शब्दों का प्रयोग केवल स्थूल रुप में ही करते है। संत ज्ञानेश्वर महाराजने अपने द्वारा लिखे ग्रंथ ज्ञानेश्वरी के कुछ श्लोकों में सद् बुद्धि तथा दुर्बुद्धि के सूक्ष्म अर्थ पर दृष्टिपात किया हैजो वास्तव में बोधप्रद तथा मनन करने योग्य है। संत ज्ञानेश्वर ज्ञानेश्वरी में लिखते है--
                 दिये की ज्योति छोटी होती है किंतु उसका प्रभाव बहुत बडा होता है। उसी प्रकार सद् बुद्धि अल्प हो तो भी उसे अल्प नही कहना चाहिये ।वह अत्यंन्त सुखदायक होती है।
                  केवल शब्दों के आडंबर से अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने वाले चिंतक इस जगत में बहुतेरे हैं किंतु उन्हें इस चराचर जगत के सत्य का ज्ञान कभी नहीं होता । वह दुष्प्राप्य है।
                पत्थर बहुतसे मिलेंगें किंतु पारस दुष्प्राप्य है । पारस या अमृत बिंदु बहुत अधिक पुण्य कर्म करने वाले को ही प्राप्त होता है।
                        उसी प्रकार सद् बुद्धि दुर्लभ है । संपूर्ण चराचर विश्व भगवन्मय है ऐसी बुद्धि ही सद् बुद्धि है । जिस प्रकार गंगा को सागर में मिलने से  कृतकृत्यता या सार्थकता प्राप्त होती है। उसी प्रकार बुद्धि को परमात्मा से एकात्म्य स्थापित करने से सार्थकता प्राप्त होती है।
                        हे अर्जुन, इस जगत में जिसे परमेश्वर से दूसरा कुछ भी नहीं दिखता वही सद् बुद्धि है। ईश्वर से अलग संसार को देखने वाली दुर्बुद्धि है। उसी के कारण राग- द्वेश , लोभ - मोह, आदि विकार उत्पन्न होते हैं और उसी में अविवेकी लोग सदैव लिप्त रहते हैं ।
                  इसीलिए हे अर्जुन , वे संसार में स्वर्ग- नर्क आदि काल्पनिक सुख - दुख रुपी जाल में फँसे रहते हैं । उन्हें आत्मसुख का दर्शन कभी नहीं होता।
                  उपर्युक्त अमृत बिंदुओं से स्पष्ट है कि  सद् बुद्धि का अर्थ है आत्मबुद्धि । वह  हितकारी होती है। आप पर भाव (द्वैत भाव) उत्पन्न करने वाली अनात्म बुद्धि (आत्मा से परे ) अर्थात वह दुर्बुद्धि है । उससे सदैव बचना चाहिए । अतः अब हम भी महाप्रभु से यही प्रार्थना करेंगें-
                                                                                  दुर्बुद्धि ना उपजे मेरे मानस हृदय पटल पर ।।
                                                                            इतना हो आलोक हमेशा जीवन के इस पथ पर ।।
                                                                                                       ------वासुदेव महाडकर। -----

Sunday 10 September 2017

               पुराण काल की बात है लक्ष्मी रुठकर (अप्रसन्न होकर) पृथ्वी से वैकुंठ धाम को चलीगयी। जिसके कारण पृथ्वीपर अनेक समस्याए उत्पन्न हुई। वसिष्ठ ऋषि माता लक्ष्मी को पृथ्वी पर लाने का निश्चय कर वैकुण्ठ (विष्णु लोक) गये।  किंतु उन्हें सफलता नही मिली। उसके बाद वसिष्ठ ऋषि ने तपस्या शुरु की और भगवान विष्णु का आह्वाहन किया।  भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने वसिष्ठ ऋषि के साथ महा लक्ष्मी के प्रसाद (गृह) में प्रवेश किया।  वहां महा लक्ष्मी की प्रार्थना की।  किंतु माता लक्ष्मी ने पृथ्वी पर न जाने का अपना निश्चय दृढ रखा। वसिष्ठऋषि दुखी मन से पृथ्वी पर लौट आये और सभी के सामने एक बात का निवेदन किया, कि अब श्रीयंत्र निर्मिति के (शिवाय) बिना दूसरा कोई रास्ता बचा नहीं है। इसप्रकार उन्होंने अपने आश्रम में दीपावली के पूर्व धनत्रयोदशी के दिन विधि- विधान से श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा की।  देवों के गुरु बृहस्पति जी ने वसिष्ठ ऋषि को श्रीयंत्र निर्मिति का ज्ञान एवं उसकी उपासना का क्रम बताया था। उन्हीं के निर्देशों के अनुसार श्रीयंत्र की निर्मिति हुई।  श्रीयंत्र की षोडशोपचार पूजा होते ही महा लक्ष्मी अपनी सभी सिद्धियों के साथ श्रीयंत्र रूपी सिंहासन पर प्रकट हुई.। महा लक्ष्मी ने सभी को आशिर्वाद दिया । उसने कहा कि -आप लोगो ने जो श्रीयंत्र का प्रयोग किया है उससे मै प्रभावित हुई हूँ, मै इस श्रीयंत्र में अखण्ड रुप में निवास करुंगी ।
         जिनके घर में विधि पूर्वक श्रीयंत्र की स्थापना हुई हो उन्हें सपरिवार श्रीयंत्र की आराधना भक्ति पूर्वक अंतःकरण से करनी चाहिए । सुबह स्नानादि से शुचिर्भूत होकर श्रीयंत्र के सामने नंदादीप (दीपक ) लगाकर आसन पर बैठना चाहिए। न्यास , संकल्प एवं ध्यान करके श्रीयंत्र की पंचोपचार पूजा करनी चाहिए। पूजा पूर्ण होने के बाद श्रीललिता सहस्रनाम स्तोत्र का पठन कर कुंकुमार्चन करना चाहिए। उसके बाद बीज मंत्र का जप करना चाहिए।  जप के बाद आरती एवं क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए।  शाम को भी धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर नैवैद्य(भोग) लगाना चाहिए। श्रीयंत्र को नित्य स्नान विधि , अभिषेक की आवश्यकता नहीं है.। केवल पौर्णिमा के दिन ललिता सहस्र नाम स्तोत्र से अभिषेक अथवा केवल जल से शुचिर्भूत होकर स्नान कराना चाहिए। ललिता सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ एवं कुंकुमार्चन करना चाहिए। जिस घर में श्रीयंत्र की स्थापना एवं ललितासहस्रनाम स्तोत्र का पाठ तथा कुंकुमार्चन होता है उस घर में ललिता स्त्रिपुरसुंदरी का निश्चित ही निवास होता है इसे ध्यान में रखना चाहिए।
              श्रीयंत्र साधना से व्यापार वृद्धि , ऋण मोचन, संतान लाभ , दरिद्रता नाश, अपार धनसंपदा, भौतिक सुखसम्पदा, और अदभुत ऐश्वर्य सिद्धि प्राप्त होती है.। अत्यंत प्रभावी इस श्रीयंत्र के कारण घर में सुख समृद्धि रहती है ।सभी प्रकार के भय का नाश होता है। विद्या, शक्ति, यश , मान-सम्मान ,ऐश्वर्य और सकल समृद्धि प्राप्त होती है। श्रीयंत्र साधना संकटों से मुक्ती एवं यश समृद्धि की ओर जानेवाला राजमार्ग है। सुबह -शाम की पूजा में श्रीयंत्र पर किसी भी प्रकार के अभिषेक की आवश्यकता नहीं है-नित्य कुंकुमार्चन ही देवी का (श्रीयंत्र का) अभिषेक है।
            पिछले कुछ वर्षो से श्रीअशोक काका कुलकर्णि जानकारी पूर्ण लेख सोशल मिडिया पर पोस्ट करते आरहे है प्रस्तुत श्रीयंत्र की जानकारी उन्हीं की पोस्टसे हिंदी में अनुदित है- वासुदेव महाडकर