पिछले दिनों एक फ्रेंड रिक्वेस्ट ने मुझे इस गज़ल की याद दिलायी और पोस्ट करने को प्रेरित किया, क्योंकि उसमे मित्रता और रिश्ते का मेल था, जबकि ये दोनों अलग -अलग हैं। हर रिश्तेको किसी न किसी नामकी जरुरत पड़ती ही है किन्तु मित्रता को किसी नाम की जरुरत ही नहीं है। संक्षिप्त में कहूँ तो एक मूर्त रूप से अमूर्त हो जाता है तो दूसरा अमूर्त में मूर्त रूप को देखता है।
यद्यपि यह गज़ल मेरी लिखी नहीं है। यह ८० के दशक में यूनियन बैंक वाराणसी की पत्रिका में छपी थी ,,,,,,जो मेरी पढ़ी हुई है ------
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ
भटकती लहर का किनारा नहींहूँ।
तुम्हारा ही क्यों, मै किसी का नहीं हूँ
रहेगा ग़म अंततक इसीका
किया एक अपराध मैंने जगत का
न था जिसका हुआ मै उसीका
आगेकी तो मै नहीं जानता हूँ
अभी तक मै किसीका प्यारा नहीं हूँ
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ ,,,|
किसीको कुछ न देसकी चाह मेरी
प्रलय भी न लेसकी थाह मेरी
किसीके चरण - चिन्ह मैंने न खोजे
जिधर पैर पड़ गये बन गयी राह मेरी
न जाने कहांसे कहां पहुँच गया हूँ
निश्चित पथिक हूँ ,सहारा नहीं हूँ
तुम्हारी शपथ मै तुम्हारा नहीं हूँ ,,,,,
भटकती लहर का किनारा नहीं हूँ।।
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